चुनाव के ये अनंत आशावान : हरिशंकर परसाई का सुप्रसिद्ध व्यंग्य

          चुनाव के ये अनंत आशावान

चुनाव के नतीजे घोषित हो गए |
अब मातमपुर्सी का काम ही रह गया है |
इतने बड़े-बड़े हारे हैं कि मुझ जैसे की हिम्मत मातमपुर्सी की भी नहीं होती |
मैंने एक बड़े की हार पर दुःख प्रकट करते हुए चिट्ठी लिखी थी |
जवाब में उनके सचिव ने लिखा- तुम्हारी इतनी जुर्रत कि साहब की हार पर दुखी होओ ? साहब का कहना है कि उनकी हार पर दुःख मनाना उनका अपमान है |
वे क्या इसलिए हारे हैं कि तुम जैसे टुच्चे आदमी दुखी हों? बड़े की हार पर छोटे आदमी को दुखी होने का कोई हक नहीं |
साहब आगे भी हारेंगे |
पर तुम्हें चेतावनी दी जाती है कि अगर तुम दुखी हुए, तो तुम पर मानहानि का मुकदमा दायर किया जाएगा |
बड़ी अजब स्थिति है |
दुखी होना चाहता हूं, पर दुखी होने का मुझे अधिकार ही नहीं है | 
मुझे लगता है, समाजवाद इसी को कहते हैं, कि बड़े की हार पर बड़ा दुखी हो और छोटे की हार पर छोटा हार के मामले में वर्ग संघर्ष खत्म हो गया |
मैं अब किसी की हार पर दुःख की चिट्ठी नहीं लिखूंगा | पर जो आस-पास ही बैठे हैं, उनके प्रति तो कर्त्तव्य निभाना ही पड़ेगा |
चिट्ठी में मातमपुर्सी करना आसान है |
 मैं हँसते-हँसते भी दुःख प्रकट कर सकता हूं |
पर प्रत्यक्ष मातमपुर्सी कठिन काम है |
मुझे उनकी हार पर हँसी आ रही है, पर जब वे सामने पड़ जाएं तो मुझे चेहरा ऐसा बना लेना चाहिए जैसे उनकी हार नहीं हुई, मेरे पिता की सुबह ही मृत्यु हुई है इतना अपने से नहीं सघता प्रत्यक्ष मातमपुर्सी में मैं हमेशा फेल हुआ हूं |
मगर देखता हूं, कुछ लोग मातममुखी होते हैं |
लगता है, भगवान ने इन्हें मातमपुर्सी की ड्यूटी करने के लिए ही संसार में भेजा है |
किसी की मौत की खबर सुनते ही वे खुश हो जाते हैं |
 दुःख का मेक-अप करके फौरन उस परिवार में पहुंच जाते हैं |
कहते हैं जिसकी आ गई, वह तो जाएगा ही |
उनकी इतनी ही उम्र थी |
 बड़े पुण्यात्मा थे |
किसी का दिल नहीं दुखाया | (हालांकि उन्होंने कई लोगों की ज़मीन बेदखल कराई थी |
उन्हें किसी के कुत्ते ने काट लिया हो और वह कुत्ता आगे मर जाए तो भी वे उसी शान से मातमपुर्सी करेंगे-बड़ा सुशील कुत्ता था |
बड़ी सात्विक वृत्ति का कभी किसी को तंग नहीं किया |
उसके रिक्त स्थान की पूर्ति श्वान-जगत् में नहीं हो सकती |
मैं कभी चुनाव नहीं लड़ा |
एक बार सर्वसम्मति से अध्यापक संघ का अध्यक्ष हो गया था |
 एक साल में मैंने तीन संस्थाओं में हड़ताल और दो अध्यापकों से भूख हड़ताल करवाई |
 नतीजा यह हुआ कि सर्वसम्मति से निकाल दिया गया | अपनी इतनी ही संसदीय सेवा है |
 सोचता हूँ, एक बार चुनाव लड़कर हार लूं तो अपनी पीढ़ी का नारा भोगा हुआ बचार्थ सार्थक हो जाए |
तब शायद मैं मातमपुर्सी के योग्य मूड बना सकूं |
अपनी असमर्थता के कारण मैं चुनाव के बाद हारे हुओं की गली से नहीं निकलता  पर ये अनन्त आशावान लोग कहीं मिल ही जाते हैं |
एक साहव पिछले पंद्रह सालों से हर चुनाव लड़ रहे हैं और हर बार जमानत जब्त करवाने का गौरव प्राप्त कर रहे हैं |
 ये नगर निगम का चुनाव हारते हैं तो समझते हैं, जनता मुझे नगर के छोटे काम की अपेक्षा प्रदेश का काम सौंपना चाहती है |
 और ये विधान सभा का चुनाव लड़ जाते हैं |
 यहां भी जमानत जब्त होती है तो ये सोचते हैं, जनता मुझे देश की जिम्मेदारी सौंपना चाहती है-और वे लोकसभा का चुनाव लड़ जाते हैं  |

हार के बाद वे मुझे मिल जाते हैं | बाल बिखरे हुए, बदहवास मेरा हाथ पकड़ लेते हैं |
झकझोर करते हैं-टेल मी परसाई, इज दिस डेमोक्रेसी ? क्या यह जनतंत्र है? मैं कुछ 'हां-हू' करके छूटना चाहता हूं तो वे मेरे पांव पर पांव रख देते हैं और मेरे मुंह से लगभग मुंह लगाकर कहते हैं-नहीं, नहीं, तुम्हीं बताओ | यह क्या जनतंत्र है?

वे मुझे कहना पड़ता है यह जनतंत्र नहीं है |
 पिछले 15-20 सालों में जब-जब चुनाव हारे हैं, तब-तब मुझे यह निर्णय लेना पड़ा है कि यह जनतंत्र झूठा है |
 जनतंत्र झूठा है या सच्चा यह इस बात से तय होता है कि हम हारे या जीते? व्यक्तियों का ही नहीं, पार्टियों का भी यही सोचना है कि जनतंत्र उनकी हार-जीत पर निर्भर है | जो पार्टी हारती चिल्लाती है-अब जनतंत्र खतरे में पड़ गया। अगर वह जीत जाती तो जनतंत्र सुरक्षित था |

एक और अनंत आशावान हैं | 
कोई शाम को उन्हें दो घंटे के लिए लाउड स्पीकर दिला दे तो वे चौराहे पर नेता हो जाते हैं और जनता की समस्या के लिए लड़ने लगते हैं |
 लाउड स्पीकर का नेता-जाति की वृद्धि में क्या स्थान है, यह शोध का विषय है |
 नेतागिरी आवाज़ के फैलाव का नाम है |

ये नेता मुझे कभी शाम को चौराहे पर गर्म भाषण करते मिल जाते हैं |
क्रोध से माइक पर चिल्लाते हैं- राइट टाउन में आवारा सूअर घूमते रहते हैं |
कॉर्पोरेशन के अधिकारी क्या सो रहे हैं? मैं नगर निगम अधिकारी के इस्तीफे की मांग करता हूं |
यह जनतंत्र का मज़ाक है कि राइट टाउन में आवारा सूअर घूमते रहते हैं और साहब चैन की नींद सोते हैं | इस प्रश्न पर प्रदेश सरकार को इस्तीफा देना चाहिए |
में भारत सरकार से इस्तीफे की मांग करता हूं |

राइट टाउन के आवारा सूअरों को लेकर वे भारत सरकार से पिछले 10 सालों से इस्तीफा मांग रहे हैं, पर सूअर भी जहां के तहां हैं और सरकार भी |
 मगर ये लाउड स्पीकरी नेता अपनी लोकप्रियता के बारे में इतने आश्वस्त हैं कि हर चुनाव में खड़े हो जाते हैं | उनकी जमानत जब्त होती है |
 पर मैंने उनके चेहरे पर शिकन नहीं देखी |
 मिलते ही कहते हैं-पैसा चल गया |
शराब चल गई |
 उन्होंने अपनी हार का एक कारण ढूंढ निकाला है कि चुनाव में पैसा और शराब चल जाते हैं और वे हरा दिए जाते हैं |
 वे खुश रहते हैं |
 उन्हें विश्वास है कि जनता तो उनके साथ है, मगर वह पैसे और शराब के कारण दूसरे को बोट दे देती है |
 ये जनता से बिल्कुल नाराज़ नहीं हैं |
वे इस बात को जायज मानते हैं कि मतदाता उसी को वोट दे जो पैसा और शराब दें |
 अभी वे लोकसभा के चुनाव में जमानत जब्त कराने के बाद मिले तो खुश थे |
बड़े उत्साह से बहुत हुआ पैसा चल गया |
 शराब चल गई |

हमारे मनीषीजी छोटा चुनाव कभी नहीं लड़ते |
 हर बार सिर्फ लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं |
उनकी भी एक पार्टी है |
 अखिल भारतीय पार्टी है |
लोगों ने उसका नाम न सुना होगा |
 उसका नाम है 'बज्रवादी पार्टी' |
 वाद है, 'वज्रवाद' और संस्थापक हैं-डॉ. वज्रप्रहार! इस पार्टी की स्थापना मध्य प्रदेश के एक कस्ये टिमरनी में डॉ. वज्रप्रहार ने की थी और वे जब देश में अनुयायी ढूंढ़ने निकले तो हमारे शहर में उन्हें मनीषीजी मिल गए |
 पार्टी में कुल ये दो सदस्य हैं और क्रांति के बारे में बहुत गंभीरता से सोचते हैं |
 मनीषी फक्कड़ फकीर हैं |
 पर हर लोकसभा चुनाव के वक्त जमानत के लिए 500 रु. और पर्चा छपाने का खर्च कहीं से लेते हैं |
 हर बार उन्हें चुनाव लड़वाने के लिए डॉ. वज्रप्रहार आ "जुटा जाते हैं |
 सभाएं होती हैं, भाषण होते हैं |
 मैं देखता हूं, दोनों धीरे-धीरे सड़क पर बड़ी गंभीरता से बातें करते चलते हैं |
 डॉ. वज्रप्रहार कहते हैं-मनीषी, रिवॉल्यूशन इज़ राउण्ड दी कॉर्नर क्रांति आने में देर नहीं है |
 तब मनीषी कहते हैं-पर डॉक्टर साहब, क्रांति का रूप क्या होगा और उसके लिए हमें कैसा 'ऐलान' कर लेना चाहिए, यह अभी तय हो जाना चाहिए। डॉक्टर साहब कहते हैं-यो तुम मेरे ऊपर छोड़ दो आई शेल गिव यू गाइड लाइंस में तुम्हारा निर्देश करूंगा |
पर तुम जनता को क्रांति के लिए तैयार कर डाली |

ये दोनों सच्चे क्रांतिकारी कई सालों से गंभीरतापूर्वक क्रांति की योजना बना रहे हैं, पर पार्टी में तीसरा आदमी अभी तक नहीं आया |
 इस बार मैंने पूछा-मनीषीजी, डॉ. वज्रप्रहार नहीं आए? मनीषी ने कहा-मेरा उनसे सैद्धांतिक मतभेद हो गया |
 भारतीय राजनीति की कितनी बड़ी ट्रेजडी है कि जिस पार्टी में दो आदमी हो, उन्हीं में सैद्धान्तिक मतभेद हो जाए। मनीषी ने कहा- उनकी चिट्ठी आई है |
इस पर्चे में छपी है  |
 उन्होंने अपना पर्चा बढ़ा दिया- 'इंटरनेशनल न्यूज़' डॉक्टर साहब का बड़ा गंभीर पत्र है- आई एम रिप्लाइंग टु द पॉलिटिकल पार्ट ऑफ योर लेटर |

मनीषी की जमानत जब्त हो गई है, पर क्रांति की तैयारी दोनों नेता बराबर करते जा रहे हैं |

एक दिन मैंने पोस्टर चिपके देखे-'जनता के उम्मीदवार सरदार केसरसिंह को बोट दो |
 कोई नहीं जानता, ये कौन हैं? जिस जनता के उम्मीदवार हैं वह भी नहीं जानती |
 किसी ने मुझे बताया कि वे खड़े हैं सरदार केसरसिंह |
 मैंने पूछा- आप किस मकसद से चुनाव लड़ रहे हैं | उन्होंने सादा जवाब दिया- मकसद ? से अजी मकसद यह क्या कम है कि आप जैसा आदमी पूछे कि सरदार केसरसिंह: कौन हैं ?

एक साहब अभी जनता की आवाज़ पर दो चुनाव लड़ चुके और जमानत खो चुके हैं |
 जनता भी अजीब है |
 वह आवाज देती है, पर वोट नहीं देती |
 वे तीसरे चुनाव की योजना अभी से बना रहे हैं |
 लोग जनता की आवाज़ कैसे सुन लेते हैं? किस 'वेव लेंग्थ' पर आती है यह? मैं भी जनता में रहता हूं, बहरा भी नहीं हूं, पर जनता की आवाज़ मुझे कभी सुनाई नहीं पड़ती |
 ये लोग आशा के किस झरने से पानी पीते हैं कि अनंत  आशावान रहते हैं ? इनकी अंतरात्मा में कौन-सी वह शक्ति है, जो इन्हें हर हार के बाद नया उत्साह देती है? मुझे यह शक्ति और अनंत आशा मिल जाए तो कमाल कर दूं  |
 जनतंत्र के इन शाश्वत आशावान रत्नों को सिर्फ प्रणाम करना ही अपने हिस्से में आया है |

इस व्यंग्य को एक बार जरूर पढ़ें नीले रंग के अक्षरों पर क्लिक करके 'जिसकी छोड़ भागी है': हरिशंकर परसाई जी का सुप्रसिद्ध व्यंग्य

Chunav Ke Ye Anant Ashawan: Satire by Harishankar Parsai in English Language ( Google Translate)

These endless hopefuls of election

Election results declared
Now only the work of mourning remains.
There are so many big losers that even I do not have the courage to mourn.
I wrote a letter expressing grief over the loss of an elder.
In response, his secretary wrote - You are so brave that you should be sad over the defeat of the sahib? Saheb says that it is an insult to mourn his loss.
Have they lost because small people like you are sad? The younger man has no right to be sad on the loss of the elder.
Sir will continue to lose.
But you are warned that if you become unhappy, you will be sued for defamation.
Very strange situation
I want to be sad, but I have no right to be sad.
I think, this is what socialism says, that the big one should be sad on the defeat of the big and the class struggle is over in the case of the small defeat on the defeat of the small.
I will no longer write a letter of sorrow over someone's loss. But those who are sitting nearby, they have to fulfill their duty.
It is easy to mourn in a letter.
 I can express my sadness even with a laugh.
But direct mourning is hard work.
I am laughing at his defeat, but when he comes in front, I should make his face as if he has not been defeated, my father has died in the morning, so much so that I have always failed in direct mourning.
But I see, some people are mournful.
It seems that God has sent them to the world to do the duty of mourning.
They get happy when they hear the news of someone's death.
 Doing make-up of grief, they reach that family immediately.
It is said that the one who has come, he will go.
He was the same age.
 He was a great saint.
Didn't hurt anyone (Though he had evicted the land of many people.
He was bitten by someone's dog and even if that dog dies in the future, he will mourn with the same pride - he was a very gentle dog.
Never harassed anyone with a great sattvik attitude.
His vacancy cannot be filled in the dog world.
I have never contested an election.
Once unanimously became the president of the teachers union.
 In one year, I got strike in three institutions and hunger strike by two teachers.
 The result was that it was thrown out unanimously. This is its only parliamentary service.
 I think, once I contest the election and lose, then the slogans of my generation will become meaningful.
Then maybe I can create a mood worthy of mourning.
Because of my inability, I do not walk down the street of the losers after the election, but these eternal hopeful people are found somewhere.
Ek Sahav is contesting every election for the last fifteen years and is getting the distinction of forfeiting the bail every time.
 If they lose the election of the municipal corporation, then they understand that the public wants to entrust me with the work of the state rather than the small work of the city.
 And they contest the election of the Legislative Assembly.
 Here too if the bail is forfeited, then they think, the public wants to hand over the responsibility of the country to me - and they contest the Lok Sabha elections.

They find me after defeat. The hair is scattered, the mischief grabs my hand.
Shake-Tell Me Parsai, is this Democracy? Is this a democracy? If I want to leave by doing some 'yes-hoo', then they put my feet on my feet and say almost with my mouth - no, no, you tell me. What is this democracy?

I have to say this is not a democracy.
 In the last 15-20 years, whenever I have lost elections, I have had to decide that this democracy is false.
 Democracy is false or true, it is decided by this fact whether we lose or win? Not only the individuals, but the parties also think that democracy is dependent on their victory or defeat. The party which cried losing - now democracy is in danger. Had she won then democracy was safe.

Another infinite hopeful.
If someone gives him a loud speaker for two hours in the evening, then he becomes a leader at the crossroads and starts fighting for the problems of the people.
 What is the place of loud speaker in the growth of the leader-caste, it is a matter of research.
 Netagiri is the name of the spread of voice.

I sometimes find these leaders giving hot speeches at the crossroads in the evening.
shouts at the mic angrily - Stray pigs roam in Right Town.
Where are the corporation officials sleeping? I demand the resignation of the Municipal Corporation Officer.
It is a joke of democracy that stray pigs keep roaming in the right town and the sir sleeps peacefully. The state government should resign on this question.
I demand resignation from Government of India.

They have been demanding resignation from the Government of India for the last 10 years regarding the stray pigs of Wright Town, but where the pigs are also there and the government too.
 But these loud speaker leaders are so sure of their popularity that they stand in every election. Their bail is forfeited.
 But I didn't see the wrinkle on his face.
 As soon as they meet, they say - the money is gone.
The wine is gone
 They have found a reason for their defeat that money and liquor run out in the election and they are defeated.
 they stay happy
 They believe that the public is with them, but they give boats to others because of money and alcohol.
 They are not angry with the public at all.
They consider it justified that the voter should vote only for those who give money and liquor.
 Now they were happy when they met after forfeiting their bail in the Lok Sabha elections.
The money spent with great enthusiasm went away. The wine is gone

Our sages never contest small elections.
 Every time only contest the Lok Sabha elections.
They too have a party.
 All India party
People would not have heard his name.
 Its name is 'Bajwadi Party'.
 The issue is 'Vajrawad' and the founder is - Dr. Thunderbolt! This party was founded by Dr. Vajraprahar in Timarni, a town in Madhya Pradesh, and when he went out to find followers in the country, he found sages in our city.
 There are total two members in the party and they think very seriously about revolution.
 The wise man is a fakir.
 But at the time of every Lok Sabha election, Rs.500 for bail. And take the cost of printing the form from somewhere.
 Every time Dr. Vajraprahar is gathered to get him to contest elections.
 There are meetings, there are speeches.
 I see, the two slowly walk on the street talking very seriously.
 Dr. Vajraprahar says - Manishi, revolution is round the corner revolution is not too late to come.
 Then the sages say - but Doctor, what will be the form of revolution and how we should announce it, it should be decided now. The doctor says - you leave it on me, I will instruct you in I shell give you guide lines.
But you have prepared the people for revolution.

These two true revolutionaries have been planning revolution seriously for many years, but the third person in the party has not yet come.
 This time I asked- Manishji, Dr. Vajraprahar did not come? The sage said - I had a theoretical difference of opinion with him.
 What is the tragedy of Indian politics that in a party consisting of two men, there should be ideological differences between them. The sage said- His letter has come.
printed in this leaflet.
 He extended his form - 'International News' is a very serious letter from Dr. Saheb - I am replying to the political part of your letter.

The security of the sage has been forfeited, but both the leaders are making equal preparations for the revolution.

One day I saw the posters sticking - 'Give a vote to Sardar Kesar Singh, the candidate of the people.
 No one knows, who are they? The public whose candidate is there does not even know.
 Somebody told me that he was standing Sardar Kesar Singh.
 I asked - for what purpose are you contesting the election? He gave a simple answer - Purpose? What is the purpose of asking a man like you Sardar Kesar Singh: Who is he? One sahib has just contested two elections on the voice of the public and has lost his bail.
 People are weird too.
 She gives voice but does not vote.
 They are planning for the third election from now.
 How do people listen to the voice of the people? At what 'wave length' does it come? I also live in public, I am not deaf, but I can never hear the voice of the public.
 From which spring of hope do these people drink water that eternal hopefuls remain? What is that power in their soul, which gives them new enthusiasm after every defeat? If I get this power and infinite hope, then I will do wonders.
 It is only in our part to salute these eternal hopeful gems of democracy.


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