परीक्षा - मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी।

     परीक्षा - मुंशी प्रेमचंद जी की सुप्रसिद्ध कहानी

    जब रियासत देवगढ़ के दीवान सरदार सुजानसिंह बूढ़े हुए तो परमात्मा की याद आई। जाकर महाराज से विनाय की कि दीनबंधु  ! दास ने श्रीमान् की सेवा चली स साल तक की, अब मेरी अवस्था भी ढल गई, राज-काज सँभालने की शक्ति नहीं रही। कहीं भूल-चूक हो जाए तो बुढ़ापे में दाग लगे। सारी जिंदगी की नेकनामी मिट्टी में मिल जाए।

   राजा साहब अपने अनुभव से नीतिकुशल दीवान का बड़ा आदर करते थे। बहुत समझाया, लेकिन जब दीवान साहब ने न माना, तो हारकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली, पर शर्त यह लगा दी कि रियासत के लिए नया दीवान आप ही को खोजना पड़ेगा।

 दूसरे दिन देश के प्रसिद्ध पत्रों में यह विज्ञापन निकला कि देवगढ़ के लिए एक सुयोग्य दीवान की जरूरत है। जो सज्जन अपने को इस पद के योग्य समझें वे वर्तमान सरदार सुजानसिंह की सेवा में उपस्थित हों। यह जरूरी नहीं है कि ग्रेजुएट हों, मगर हष्ट-पुष्ट होना आवश्यक है, मंदान्गि के मरीज को यहां तक कष्ट उठाने की कोई जरूरत नहीं। एक महीने तक उम्मीदवारों के रहन-सहन, आचार-विचार की देखभाल की जाएगी। विद्या का कम, परंतु कर्तव्य का अधिक विचार किया जाएगा। ‌ जो महाशय इस परीक्षा में पूरे उतरेंगे, वे इस पद पर सुशोभित होंगे।

    इस विज्ञापन ने सारे मुल्क में तहलका मचा दिया। ऐसा ऊँचा पद और किसी प्रकार की कैद नहीं? केवल नसीब का खेल है। सैकड़ों आदमी अपना-अपना भाग्य परखने के लिए चल खड़ हुए। देवगढ़ में नए-नए और रंग-बिरंगे मनुष्य दिखाई देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मेला-सा उतरता। कोई पंजाब से चला आता था, कोई मद्रास से, कोई नई फैशन का प्रेमी, कोई पुरानी सादगी पर मिटा हुआ। पंडितों और मौलवियों को भी अपने-अपने भाग्य की परीक्षा करने का अवसर मिला। बेचारे सनद के नाम रोया करते थे, यहाँ उनकी कोई जरूरत नहीं थी। रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकार की अंगरखे और कंटोप देवगढ़ में अपनी सज-धज दिखाने लगे। लेकिन सबसे विशेष संख्या ग्रेजुएटों की थी, क्योंकि सनद की कैद न होने पर भी सनद से पर्दा तो ढँका रहता है।

    सरदार सुजानसिंह ने इन महानुभावों के आदर-सत्कार का बड़ा अच्छा प्रबंध कर दिया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे हुए दिन गिना करते थे। हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर ‘अ’ नौ बजे तक सोया करते थे, आजकल वे बगीचे में टहलते हुए ऊषा का दर्शन करते थे। मिस्टर 'ब' को हुक्का पीने की लत थी, आजकल बहुत रात गए के किवाड़ बंद करके अंधेरे में सिगार पीते थे। मि. स, द और ज से उनके घरों पर नौकरों के नाम में दम था, लेकिन ये सज्जन आजकल ‘आप’ और ‘जनाब’ के बगैर नौकरों से बातचीत नहीं करते थे। महाशय ‘नास्तिक’ थे, मगर आजकल उनकी धर्मनिष्ठा देखकर मंदिर के पुजारी को पदच्युत हो जाने की शंका लगी रहती थी। मि. ‘ल’ को किताब से घृणा थी, परंतु आजकल वे बड़े-बड़े ग्रंथ देखने-पढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बात कीजिए, वह नम्रता और सदाचार का देवता बना मालूम होता था। शर्मा जी घड़ी से ही वेद-मंत्र पढ़ने लगते थे और मौलवी साहब को नमाज और तलावत के सिवा और कोई काम न था। लोग समझते थे कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है।

     लेकिन मनुष्यों का वह बूढ़ा जौहरी आड़ में बैठा हुआ देख रहा था कि ईन  बगुलों में हंस कहाँ छिपा हुआ है। एक नए फैशनवालों को सूझी कि हॉकी का खेल हो जाए। यह प्रस्ताव हॉकी के मँजे हुए खिलाड़ियों ने पेश किया। यह भी तो आखिर एक विद्या है। ऐसे क्यों छुपा रखें। संभव है, कुछ हाथों की सफाई ही काम कर जाए। चलिए तय हो गया, फील्ड बन गई, खेल शुरू हो गया और गेंद किसी दफ्तर के अप्रेंटिस की तरह ठोकरें खाने लगी।

     रियासत देवगढ़ में यह खेल बिल्कुल निराली बात थी। पढ़े-लिखे भलेमानुस लोग शतरंज जैसे गंभीर खेल खेलते थे। दौड़-कूद के खेल बच्चों के खेल समझे जाते थे।

    खेल बड़े उत्साह से जारी था। धावे की लोग जब गेंद को लेकर तेजी से उड़ते तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई लहर बढ़ती चली आती है। लेकिन दूसरी ओर से खिलाड़ी इस बढ़ती हुई लहर को इस तरह रोक लेते थे कि मानो लोहे की दीवार हो।

    संध्या तक यही धूमधाम रही। लोग पसीने से तर हो गए। खूब गर्मी आँख और चेहरे से झलक रही थी। हाँफते-हाँफते बेदम हो गए, लेकिन हार जीत का निर्णय न हो सका।

   अंधेरा हो गया था। इस मैदान में जरा दूर हटकर एक नाला था। उस पर कोई पुल न था। पथिकों को नाली में से चलकर आना पड़ता था। खेल अभी बंद ही हुआ था और खिलाड़ी लोग बैठे दम ले रहे थे कि एक किसान अनाज से भरी हुई गाड़ी लिए हुए नाले में आया। लेकिन कुछ तो नाले में कीचड़ था और कुछ उस की चढ़ाई इतनी ऊँची थी कि गाड़ी ऊपर न चल सकती थी। वह कभी बैलों को ललकारता, कभी पहियों को हाथ से ढकेलता, लेकिन बोझ अधिक था और बैल कमजोर। गाड़ी ऊपर न चढ़ती और चढ़ती भी तो कुछ दूर चढ़कर फिर खिसककर नीचे पहुँच आती। किसान बार-बार जोर लगाता और बार-बार झुँझलाकर बैलों को मारता, लेकिन गाड़ी को अकेले छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकता। बड़ी आपत्ति में फँसा हुआ था। इसी बीच में खिलाड़ी हाथों में डंडे लिए घूमते-घामते उधर से निकले। किसान ने उसकी तरफ सहमी हुई आँखों से देखा, परंतु किसी से मदद माँगने का साहस न हुआ। खिलाड़ियों ने भी उनको देखा मगर बंद आंखों से, जिनमें सहानुभूति न हो, उनमें स्वार्थ था, मद था, मगर उदारता और वात्सल्य का नाम भी न था।

    लेकिन उसी समूह में एक ऐसा मनुष्य था जिसके हृदय में दया थी और साहस था। आज हॉकी खेलते हुए उसके पैरों में चोट लग गई थी। लंगड़ाता हुआ धीरे-धीरे चला आता था। अकस्मात् उसकी निगाह गाड़ी पर पड़ी। ठिठक गया। उसे किसान की सूरत देखते ही सब बातें ज्ञात हो गईं। डंडा एक किनारे रख दिया। कोट उतार डाला और किसान के पास जाकर बोला-मैं तुम्हारी गाड़ी निकाल दूँ?

    किसान ने देखा एक गठे हुए बदन का लंबा आदमी सामने खड़ा है। झुककर बोला-हुजूर मैं आपसे कैसे कहूँ? युवक ने कहा-मालूम होता है, तुम यहाँ बड़ी देर से फँसे हो। अच्छा, तुम गाड़ी पर जाकर बैलों को साधो, मैं पहियों को ढकेलता हूँ अभी गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है।

    किसान गाड़ी पर जा बैठा। युवक ने पहिए को जोर लगाकर उकसाया। कीचड़ बहुत ज्यादा थी। वह घुटने तक जमीन में गड़ गया, लेकिन हिम्मत न हारी। उसने फिर जोर किया, उधर किसान ने बैलों को ललकारा। बैलों को सहारा मिला, हिम्मत बँध गई, उन्होंने कंधे झुका कर एक बार जोर किया तो गाड़ी नाली के ऊपर थी।

    किसान युवक के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला-महाराज, आपने आज मुझे उबार लिया, नहीं तो सारी रात मुझे यहाँ बैठना पड़ता।

    युवक ने हँसकर कहा-अब मुझे कुछ इनाम देते हो? किसान ने गंभीर भाव से कहा-नारायण चाहेंगे तो दीवानी आपको ही मिलेगी।

    युवक ने किसान की तरफ गौर से देखा। उसके मन में एक संदेह हुआ, क्या यह सुजानसिंह तो नहीं है? आवाज मिलती है, चेहरा-मोहरा भी वही। किसान ने भी उसकी और तीव्र दृष्टि से देखा। शायद उसके दिल के संदेह को भाँप गया। मुस्कुराकर बोला-गहरे पानी में बैठने से ही मोती मिलता है।

   निदान, महीना पूरा हुआ। चुनाव का दिन आ पहुँचा। उम्मीदवार लोग प्रातःकाल ही से अपनी किस्मतों का फैसला सुनने के लिए उत्सुक थे। दिन काटना पहाड़ हो गया। प्रत्येक के चेहरे पर आशा और निराशा के रंग आते थे। नहीं मालूम, आज किसके नसीब जागेंगे ! न जाने किस पर लक्ष्मी की कृपादृष्टि होगी।

   संध्या समय राजा साहब का दरबार सजाया गया। शहर की रईस और धनाढ्य लोग, राज्य के कर्मचारी और दरबारी तथा दीवानी के उम्मीदवारों का समूह, सब रंग-बिरंगी सज-धज बनाए दरबार में आ विराजे ! उम्मीदवारों के कलेजे धड़क रहे थे।

   जब सरदार सुजानसिंह ने खड़े होकर कहा-मेरे दीवानी के उम्मीदार महाशयो ! मैंने आप लोगों को जो कष्ट दिया है, उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए। इस पद के लिए ऐसे पुरुष की आवश्यकता थी जिसके हृदय में दया हो और साथ-साथ आत्मबल। ह्रदय वह जो उदार हो, आत्मबल वह जो आपत्ति का वीरता के साथ सामना करे और इस रियासत के सौभाग्य से हमें ऐसा पुरुष मिल गया। ऐसे गुण वाले संसार में कम हैं, वे कीर्ति और मान के शिखर पर बैठे हुए हैं, उन तक हमारी पहुँच नहीं है। मैं रियासत के प. जानकीनाथ-सा दीवान पाने पर बधाई देता हूँ।

   रियासत के कर्मचारियों और रईसों ने जानकीनाथ की तरफ देखा। उम्मीदवार दल की आँखें उधर उठीं, मगर उन आँखों में सत्कार था, इन आंखों में ईर्ष्या।

   सरदार साहब ने फिर फरमाया, आप लोगों को यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होगी कि जो पुरुष स्वयं जख्मी होकर एक गरीब किसान की भरी हुई गाड़ी को दलदल से निकालकर नाले के ऊपर चढ़ा दे उसके हृदय में साहस, आत्मबल और उदारता का वास है। ऐसा आदमी गरीबों को कभी न सताएगा। उसका संकल्प दृढ़ उसके चित्त को स्थिर रखेगा। वह चाहे, धोखा खा जाए, परंतु दया और धर्म से कभी ना हटेगा।

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प्रश्न - सुजानसिंह कौन थे?
उत्तर- रियासत देवगढ़ के दीवान थे।

प्रश्न - रियासत देवगढ़ में आए हुए उम्मीदवारों ने कौन-सा खेल खेलने की योजना बनाई?
उत्तर- हॉकी।

प्रश्न - किसान की गाड़ी कहाँ फँस गई थी?
उत्तर- (कीचड़ के) नाले में।

प्रश्न - गाड़ी पर किसान के वेश में कौन था?
उत्तर- दीवान सरदार सुजान सिंह।


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पोस्ट लेखक - संघप्रिय गौतम (sangh7.blogspot.com)