बिरसा मुण्डा
आइए, सीखें : • देश प्रेम की भावना, नेतृत्व क्षमता का विकास • अन्याय का विरोध करने का साहस • संधि, समास • प्रत्यय, उपसर्ग • शुद्ध शब्द • पर्यावाची शब्द
(पाठ परिचय : सन् 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम विदेशी दासता से मुक्त होने का एक महान प्रयास था।
उस समय राजे-रजवाड़े ही नहीं, सामान्यजन भी अँग्रेजों के विरुद्ध कमर कसकर खड़े थे। इसका प्रभाव भारत की जनजातियों पर भी पड़ा। बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में मुण्डा जनजाति ने अँग्रेजों का सशस्त्र विरोध किया था। प्रस्तुत पाठ उन्हीं वीर, क्रांतिकारी और मार्गदर्शक बिरसा मुण्डा का जीवन-वृत्त है।)
स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी पूरे देश में भीतर-भीतर सुलग रही थी। 1857 में वह ज्वाला बनकर प्रकट हुई। भारत की जनजातियों में भी अँग्रेजी शासन के विरुद्ध भावनाएँ उमड़ने लगी थीं। इन भावनाओं को स्वर देने का काम बिरसा मुण्डा ने किया था। बिरसा मुण्डा का जन्म छोटा नागपुर (वर्तमान झारखंड राज्य) के एक गाँव चारकाड़ में हुआ था। मुण्डा भारत की एक प्रमुख जनजाति है जो राँची और उसके आसपास के क्षेत्रों में बहुसंख्या में निवास करती है। मुण्डा सरल जीवन यापन करने वाली प्रकृति पर निर्भर जनजाति है।
मुण्डा समाज के लोग 'सिंग' और 'बोंगा' की उपासना करते हैं। 'सिंग' का अर्थ सूर्य होता है और 'बोंगा' मुण्डा समाज की देवी है। अन्य जनजातियों की समान मुण्डा समाज में भी आज काफी जागृति आ गई है। विदेशी दासता की जंजीरों से मुक्त होने के लिए तत्कालीन उरांव, मुण्डा और खड़िया जनजातियों ने बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठा लिए थे।
अपने बचपन में बिरसा एक सामान्य बालक ही थे। वह अपने माता-पिता के काम में हाथ बँटाते, खेती-बाड़ी का काम करते तथा पशुओं को चलाते। आर्थिक तंगी के कारण बिरसा को उनके पिता ने मामा के गाँव भेज दिया। बिरसा वहाँ अधिक समय तक नहीं टिके। उन्हें बंसी बनाने का शौक था। संगीत में वे इतने तन्मय हो जाते थे कि काम की सुध-बुध ही नहीं रहती। इससे उन्हें डाँट पड़ती। डाँट-फटकार से तंग आकर वे अपने माता-पिता की पास लौट आए।
उनके पिताजी ने उन्हें साल्गा गाँव की पाठशाला में भर्ती करा दिया, जहाँ से उन्होंने प्रारंभिक परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर उन्हें चाईंबासा के लूथरन मिशन स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया। मिशनरी स्कूल में पढ़ते समय बिरसा को दासता का अनुभव हुआ। उन्होंने मुण्डा जनों के शोषण के कई पीड़ादायी दृश्यों को देखा। बिरसा ने अँग्रेजों के कारनामों पर टीका-टिप्पणी करना प्रारंभ कर दिया। स्कूल प्रबंधकों को विरसा का यह आचरण खटकने लगा। उन्होंने बिरसा पर बहुत दबाव डाला कि वह आलोचना करना बंद कर दे, किन्तु वे सत्य पर दृढ़ बने रहे। परिणामस्वरूप उन्हें विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। उनकी पढ़ाई छूट गई। इस समय वे युवावस्था में प्रवेश कर रही थे। निष्कासन ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। बिरसा मुण्डा पीड़ित लोगों की सेवा में जुट गए। वे बीमार व्यक्तियों का उपचार जड़ी-बूटी की सहायता से करने लगे। बीमार लोगों की भीड़ उनके यहाँ एकत्र होने लगी। उपचार के लिए वे दूसरे गाँव में भी जाते थे। लोगों को विश्वास था कि बिरसा को कोई सिद्धि प्राप्त है। बिरसा के कारण ओझा लोगों का काम चौपट हो रहा था।
एक गांव में जब चेचक फैली तो ओझाओं ने गाँववासियों से कहा, "बिरसा के कारण ही यह बीमारी फैली है, उसे गाँव में मत घुसने दो।" गाँववासियों ने वैसा ही किया। लेकिन बीमारी और भी भयानक हो गई, तब गाँववासियों ने बिरसा से प्रार्थना की। बिरसा ने गाँव में जाकर लोगों का जड़ी-बूटियों से उपचार किया और उन्हें स्वास्थ्य के नियम भी बताए। इसके बाद तो बिरसा ने चिकित्सा करने के साथ-साथ उपदेशक के रूप में भी कार्य करना प्रारंभ कर दिया। वे अवतारी पुरुष माने जाने लगे।
विरसा लोगों से कहते, "मुझे भगवान सिंग, बोंगा न प्रेरणा दी है कि मैं मुण्डाओं को फिरंगियों के अत्याचारों से मुक्त कराऊँ। अब मुण्डा लोग कंपनी सरकार का हुक्म न मानें। पुलिस, मजिस्ट्रेट, मुंशी, जागीरदार किसी की बेकार न करें।"
बिरसा के प्रति लोगों का आदर भाव उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था। बिरसा के पास दूर-दूर के गांवों से लोग आने लगे। उन दिनों जनजातियों की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी। इसके पूर्व वे अपनी जमीन के मालिक थे। भी फसलें उगाते थे। उनकी अपनी ग्राम-व्यवस्था थी। पंच-पंचायतें थीं और रहन-सहन का अपना परम्परागत ढंग था। पर अँग्रेजों ने उन सबको नष्ट करके जमींदार, जागीरदार, जंगल के ठेकेदार और दलाल उन पर लाद दिए। वनवासी अपनी ही जमीन पर मालिक से नौकर हो गए। विवशता, भूख और दमन के कारण वे अपने आपको और असहाय समझने लगे।
ऐसी स्थिति में बिरसा मुण्डा ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध तीव्र आंदोलन प्रारंभ किया। यह आंदोलन अन्याय और शोषण के विरुद्ध था। यह आंदोलन मानवता की रक्षा के लिए था। उन दिनों प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महान् सेनानियों में झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहब, कुँवर सिंह आदि की वीरता की कहानियाँ लोगों के मुंह पर थीं। जनमत अँग्रेज शासकों के विरुद्ध था। मुण्डा समाज में दबी भावनाएँ अब व्यापक सामाजिक आंदोलन और राजनैतिक रूप में उभरने लगीं। गाँव इन गतिविधियों का केंद्र था और बिरसा इन गतिविधियों के केन्द्र बिन्दु थे। विदेशी राज का जुआ अपने कंधों से उतारने के लिए वे कृत संकल्प थे। वे गाँव-गाँव में जाकर सभाएँ करते। एक सभा में उन्होंने कहा -
"अंग्रेज शासकों ने हमें बहुत लूटा है। अब हम और सहन नहीं करेंगे। हम शोषकों से मुकाबला करने के लिए कंधे-से-कंधा मिलाकर आगे बढ़ेंगे।" बिरसा के विचारों से प्रेरित होकर मुण्डा व जनजातियाँ भाले और तीर-कमान लेकर चारकाड़ गाँव में एकत्र होने लगे। बरसा की क्रांतिकारी गतिविधियों से परेशान डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें उपस्थित होने का आदेश दिया किन्तु उस आदेश को ठुकरा दिया। तब उन्हें पकड़ने का उत्तरदायित्व जिला पुलिस अधीक्षक को सौंपा गया। उन्होंने रात में ही अपने दल-बल के साथ जाकर बिरसा को घर से गिरफ्तार कर लिया। उन्होंने कहा, "मेरे न रहने पर भी मेरे द्वारा दिखाया गया रास्ता बंद नहीं होगा।" उन्हें ले जाकर राँची जेल में डाल दिया गया। न्यायालय ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध दंगा भड़काने का आरोप लगाकर बिरसा और उनके कुछ साथियों को दो वर्ष की कठोर सजा सुनाई। सजा पूरी हो जाने पर सरकार ने उन्हें मुक्त कर दिया। साथ ही चेतावनी दी कि वे पूर्णतः शांति से जीवन यापन करेंगे। कुछ दिनों के बाद उन्होंने फिर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध शंखनाद कर दिया जिसमें पूरा समाज उनके साथ था।
इस व्यापक सामाजिक जागरण को स्वतंत्रता-संग्राम की संज्ञा दी जाने लगी। यह खबरें इंग्लैंड तक जा पहुँची। बिरसा यहाँ-वहाँ बैठकें करते एवं लोगों को साहस पूर्वक अँग्रेज शासन का विरोध करने की बात करते। उनके साथ के लोग अँग्रेज व्यापारियों पर बाणों की वर्षा करते। जंगल की लड़ाई थी। जनवरी उन्नीस सौ (1900) के प्रारंभिक दिनों में अँग्रेजों के विरुद्ध मुण्डा समाज की यह लड़ाई पूरी तेजी पर थी। बिरसा के विरुद्ध वारंट निकल चुका था। लड़ाई लंबी खिंचती जा रही थी। अँग्रेजों ने पूरी ताकत लगाकर इस स्वाधीनता की लड़ाई को कुचलने की ठान ली। उन्होंने सेना बुलाकर सत्याग्रह को बर्बरता से दबाना प्रारंभ कर दिया; लोगों पर अंधाधुंध गोलियों की बौछार होने लगी। सैकड़ों मुण्डा पकड़ लिए गए, कुछ ने आत्मसमर्पण कर दिया। इधर अँग्रेज सरकार ने बिरसा को पकड़ने के लिए एक बड़ा इनाम घोषित किया। उस इनाम की लालच में कुछ लोगों ने मिलकर सोते हुए बिरसा को जाकर पकड़ लिया। उन्हें डिप्टी कमिश्नर को सौंप दिया गया। इस प्रकार जन्मभूमि की स्वतंत्रता का बिरसा का लक्ष्य तो अधूरा रह गया, परंतु उन्होंने समाज में स्वाधीनता की चेतना की जो ज्योति जगा दी थी वह ज्योति निरंतर जलती रही।
बंदी होने से पहले बिरसा से बीमार चल रहे थे। जेल में उनका स्वास्थ्य और गिरता जा रहा था। मुकदमे की सुनवाई के दिन जब उन्हें अदालत में पेश किया गया, तब उनकी स्थिति बिगड़ गई। उन्हें खून की उल्टियाँ होने लगीं। दाह-संस्कार सार्वजनिक रूप से नहीं किया।
बिरसा मुण्डा नहीं रहे । उनके कितने ही प्रियजन कारागार में चक्की पीसते रहे। उनके कितने ही साथियों को मौत की सज़ा दी गई। बिरसा मुण्डा समाज के लोक देवता बन गए। भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में उनका नाम अमर रहेगा।
-लेखकगण
बिरसा मुण्डा के नाम से यह पाठ (जीवनी) भाषा भारती हिंदी कक्षा 8 मध्यप्रदेश की पुस्तक से लिया गया है।
प्रश्न 1 दिए विकल्पों में से सही विकल्प चुनकर लिखिए-
क बिरसा मुण्डा का संबंध निम्नलिखित में से वर्तमान के किस राज्य से था?
(1) झारखण्ड, (2) बिहार, (3) छत्तीसगढ़।
उत्तर:- (1) झारखंड।
(ख) मुण्डा समाज के आराध्य देव 'सिंग' का अर्थ है
(1) सिंह, (2) सींग, (3) सूर्य
उत्तर:- (3) सूर्य।
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