इन्द्रधनुष का रहस्य (वैज्ञानिक लेख) – डॉ. कपूरमल जैन। डॉ. कपूरमल जैन का लेखक परिचय, शिक्षा, प्रकाशित पुस्तकें व सम्मान।

               इन्द्रधनुष का रहस्य              
                                            –  डॉ. कपूरमल जैन
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लेखक परिचय — जन्म: 1 जुलाई 1950, धार मध्यप्रदेश।

शिक्षा– आणविक भौतिकी में पी–एच.डी.। विज्ञान, उच्च शिक्षा में गुणवत्ता प्रबंधन एवं विज्ञान की नवाचारी शिक्षण पद्धतियों में गहरी रूचि रही।

प्रकाशित पुस्तकें– हरी राह, 1905 में भौतिकी की क्रांति, घर घर में विज्ञान, भौतिकी की विकास यात्रा, न्यूट्रानों की दुनिया, थिंकिंग फिजिक्स दिस वे, बनना एक वैज्ञानिक का आदि उच्चस्तरीय विज्ञान पुस्तकें। 170 से अधिक शोधपत्र तथा लेख प्रकाशित।

सम्मान– श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान, अनुसृजन सम्मान, डॉ. शंकर दयाल शर्मा सृजन सम्मान (2009), सर सी.वी. रमन विज्ञान संचार सम्मान (2015)
       मध्यप्रदेश उच्च शिक्षा विभाग में भौतिकी के प्राध्यापक , प्राचार्य तथा संयुक्त संचालक रहकर सेवानिवृत्त।
       ‘इन्द्रधनुष का रहस्य’ लेख मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल से प्रकाशित डॉ. कपूरमल जैन ( Dr. Kapurmal Jain ) की पुस्तक ‘जिज्ञासाओं के गर्भ में वैज्ञानिक चेतना’ (1995) से संकलित है।
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                इन्द्रधनुष का रहस्य
                                             — डॉ. कपूरमल जैन
    प्रकाश के व्यवहार को समझने के उद्देश्य से घूम रहे किसी व्यक्ति का ध्यान जब किसी मकान की खपरैल से बनी छत अथवा खिड़की के छिद्र से निकल रहे प्रकाश पर गया होगा तब उसे पता चला होगा कि प्रकाश एक-सीध अर्थात् सरल-रेखीय मार्ग पर चलता है। जब उसने बच्चों को दर्पण की सहायता से कमरे के किसी अंधेरे भाग को प्रकाशित करते अथवा अपने मित्रों की आँखों में डालकर असीम आनंद उठाते हुए देखा होगा तब उसे ज्ञात हुआ होगा कि यही प्रकाश जब किसी दर्पण (Mirror) या चमकदार सतह पर पड़ता है तब इसका आगे बढ़न रुक जाता है और यह अपनी दिशा बदल लेता है। प्रकाश किरणों का इस तरह दिशा बदल लेना वैज्ञानिक भाषा में ‘प्रकाश का परावर्तन’ (Reflection) कहलाता है। ईसा से लगभग ढाई सौ वर्ष ( 250 ) पूर्व आर्कमिडिज ( Archemedes ) नामक विख्यात वैज्ञानिक ने अपने देश यूनान की सेना के लिए बड़े-बड़े दर्पणों का निर्माण किया था। जब रोम ने यूनान पर आक्रमण किया तब यूनानी सैनिकों ने इन दर्पणों की सहायता से रोम के सैनिकों की आँखों में चिलका डालकर सेना में भगदड़ मचा दी थी। ये वही आर्कमिडिज थे जो एक बार बहुचर्चित समस्या को लेकर परेशान थे जिसमें उन्हें यह बताना था कि उनके राजा का मुकुट शुद्ध सोने का बना है अथवा नहीं। लंबे समय से परेशान कर रही इस समस्या का हल उन्हें एक बार तालाब में नहाते समय अचानक मिला और वे  ‘युरेका-युरेका’ कहते हुए सड़क पर दौड़ पड़े, बिना यह परवाह किए कि उन्होंने क्या पहन रखा है।
        इसी दौरान मनुष्य ने परावर्तन की तरह ही प्रकाश के एक और महत्वपूर्ण गुण ‘अपवर्तन’ (refraction) का पता लगा लिया। संभवतः उसने लाठी के सहारे चल रहे किसी मनुष्य को नदी पार करते हुए देखकर ‘अपवर्तन’ का पता लगाया होगा। उसने देखा होगा कि लाठी का जो भाग पानी में डूबा होता है वह कुछ तिरछा हो जाने का आभास देता है। कारण जानने की तीव्र उत्कंठा ने उसे इसी तरह की कुछ और प्रयोग करने को प्रेरित किया होगा। उसने पानी भरे कटोरे में सीधी अथवा चम्मच को डाल-डाल कर प्रयोग किए होंगे। जब उसने यह स्थापित कर लिया कि लाठी, छड़ अथवा चम्मच का कोई भाग वास्तव में विरूपण नहीं होता है, तब वह उस ‘आभासी विरूपण’ का कारण उसे ‘प्रकाश के व्यवहार’ में दिखाई दिया होगा। कई प्रयोगों को करने के पश्चात उसने यह निष्कर्ष निकाला होगा कि वस्तु के पानी वाले भाग से आने वाला प्रकाश, हवा में प्रवेश करते समय, अपने मूल मार्ग से विचलित होकर आँख तक पहुँचता है। पूरी वस्तु को एक-साथ देखने पर पानी में डूबा हुआ उसका भाग, मुड़े होने का भ्रम पैदा करता है।
इस तरह जब प्रकाश एक माध्यम से दूसरे में प्रवेश करता है तब-तब वह आगे बढ़ता है,  लेकिन अपने मूल मार्ग से विचलित भी हो जाता है। यह विचलन उपस्थित माध्यमों पर निर्भर करता है। प्रकाश के इस गुण पर काम करने वाली एक वस्तु ‘लेंस’ (Lens) है। लेंस पारदर्शी पदार्थ जैसे काँच से बनता है। इनका आकार चपटा और गोल होता है। जिस लेंस का बीच वाला भाग उसके किनारों की तुलना में मोटा होता है, वह ‘उत्तल लेंस’ (conves lens) कहलाता है जबकि बीच से पतला रहने वाला ‘अवतल लेंस’ (concave lens)। उत्तल लेंस द्वारा सूर्य की किरणें इस तरह विचलित होती हैं कि उस पर पड़ने वाली समस्त किरणें लेंस की दूसरी ओर पहुँचकर एक ही स्थान पर केंद्रित हो जाती है। मनुष्य को यह बात बहुत पहले से ही मालूम है। वह लेंस की सहायता से सूखी घाँस, पत्ती, कपास और कागज जैसी वस्तुओं को जलाना जानता था। आज भी बच्चों को लेंस की सहायता से किये जाने वाले इस तरह के खेल बहुत भाते हैं। आप हैरान होंगे यह जानकर कि कभी-कभी यह ज्ञान कितना उपयोगी साबित हो जाता है। कल्पना कीजिए कि पर्वतारोहण के दौरान एक पर्वतारोही हिमाच्छादित शिखर पर पहुँच कर पाता है कि उसके पास आग उत्पन्न करने के लिए माचिस नहीं है तथा आग पैदा करने का दूसरा कोई तरीका उपलब्ध नहीं है। ऐसे में वहाँ उपलब्ध पारदर्शी बर्फ से लैंस बनाने का विचार उसको जानलेवा सर्दी से बचाने का रास्ता सुझा सकता है।
       विभिन्न माध्यमों को लेकर किए गये अपवर्तन संबंधी प्रयोगों से ‘पूर्ण आंतरिक परावर्तन’ (total internal reflection) के रूप में एक और महत्वपूर्ण घटना की जानकारी मिली। जब प्रकाश की किरण पानी जैसी ‘सघन-माध्यम’ (denser medium) से हवा जैसी ‘विरल माध्यम’ (rarer medium) में प्रवेश करती है, तब कुछ स्थितियों में उनका इतना अधिक विचलन ( deviation) हो जाता है कि वह ‘प्रकाश-किरण’ हवा में जाने की वजह पुनः पानी में ही लौट आती है। इस तरह, ऐसा लगता है मानो ‘सघन’ और ‘विरल’ माध्यमों का ‘संधि-स्थल’ एक दर्पण की तरह है, जहाँ से प्रकाश का ‘परावर्तन’ हो रहा है। वैज्ञानिक भाषा में इस घटना को ‘पूर्ण आंतरिक परावर्तन’ (total internal reflection) कहते हैं।
       सन 1665 में ईटली के एक वैज्ञानिक ग्रिमाल्डी (grimaldi) ने देखा कि किसी अवरोधक आप जैसे कोई महीन तार,  किसी के सिर का बाल अथवा किसी बारीक छिद्र के तीक्ष्य किनारों (sharp edges) से प्रकाश अचानक मुड़ जाता है, जिससे उस अवरोधक की छाया कि किनारी अस्पष्ट देखने लगते हैं। प्रकाश द्वारा दिखाये गये इस नये गुण का प्रकाश का ‘विवर्तन’ (diffraction) कहते हैं। सरल रेखीय मार्ग पर चलने वाले प्रकाश के लिए इस गुण को दर्शना सचमुच आश्चर्यजनक है।
        विवर्तन की खोज के लगभग 4 वर्षों बाद यानी सन 1669 में प्रकाश के एक अन्य विशिष्ट गुण का फिर पता चला जब दार्शनिक एरेक्मस बार्थोलिनस (Erakmus Bartholinus) ‘आइसलैंड स्पार यानी केल्साइट’ (निजर्लित कैल्शियम कार्बोनेट) नामक एक प्राकृतिक क्रिस्टल का अध्ययन कर रहे थे। एक प्रयोग के दौरान क्रिस्टल को घुमाते हुए देखने पर उन्हें क्रिस्टल से गुजर कर आने वाले प्रकाश की तीव्रता से पहले तो कोई अंतर नहीं मिला, लेकिन सहज जिज्ञासावश जब उन्होंने इस क्रिस्टल से निकले प्रकाश को अपने पास रखे एक दूसरे क्रिस्टल से गुजार कर देखा तब उन्हें प्रकाश की तीव्रता में अच्छी खासी कमी दिखाई दी। उत्सुक बार्थोलिनस ने अब इस दूसरे क्रिस्टल को घुमाना आरंभ किया और देखा कि क्रिस्टल के घूमने के साथ-साथ प्रकाश की तीव्रता में भी नियमित घटत-बढ़त होने लगती है। उन्होंने देखा कि हमेशा ही पहले क्रिस्टल के सापेक्ष दूसरे क्रिस्टल की एक निश्चित स्थिति में उन्हें अधिकतम प्रकाश मिलता है जबकि इस स्थिति से दूसरे क्रिस्टल को 90 डिग्री घुमाने पर इनमें से गुजरने वाले प्रकाश की तीव्रता शून्य हो जाती है। इससे बार्थोलिनस समझ गये कि निश्चित ही प्रथम आइसलैंड स्पार से निकलने के पश्चात् प्रकाश कोई एक नया गुण धारण कर लेता है। यह गुण प्रकाश की ‘ध्रुवण’ (polarization) कहलाया। विवर्तन की ही तरह ध्रुवण भी प्रकाश के उन विशिष्ट गुणों में शामिल हो गया जिनका मूल कारण तत्कालीन वैज्ञानिकों को ज्ञात नहीं हो पा रहा था।
       इन्हीं वर्षों में प्रकाश के गुणों के विस्तृत अध्ययन हेतु और भी कई वैज्ञानिक जुटे थे जिनमें विलेब्रोर्ड स्नेल (snell) प्रमुख थे। उन्होंने ही सन् 1620 में अपवर्तन (refraction) संबंधी नियमों की खोज की थी। इसके बाद शुरुआत हुई आइज़क न्यूटन (isaac newton) के महान वैज्ञानिक युग की।
        तार्किक शक्ति के धनी न्यूटन सन 1666 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय में चौथे वर्ष के छात्र थे। उस समय लंदन में भयंकर प्लेग फैलने की वजह से सभी स्कूल-कॉलेज बंद कर दिये गये थे। इससे न्यूटन को अपने गाँव जाना पड़ा। कोई और होता तो अपनी पढ़ाई ही बंद कर देता लेकिन गाँव में पहुँचकर न्यूटन की बौद्धिक प्रखरता और भी मुखरित हो गई। वहीं अपने खेत पर रहते हुए उनका प्रकृति से सीधा साक्षात्कार होने लगा। उन्हें प्रकृति में घटने वाली हर घटना सार्थक नजर आने लगी। वे उन घटनाओं के प्रखर प्रेक्षक बनकर उसमें निहित संदेशों को ग्रहण करने की चेष्टा करने में जुट गए। कहते हैं, एक बार उन्होंने एक पेड़ से सेब-फल गिरते हुए देखा तब वे तब तक सोचते रहे जब तक कि गुरुत्वाकर्षण (Gravitiational Attraction) के रूप में उसका कारण नहीं जान लिया। इसी तरह आकाश में इन्द्रधनुष को देखकर प्रकाश के अध्ययन में उनकी इच्छा तीव्र हुई और,  इस तरह यही ग्रामीण परिवेश में रहते हुए ही न्यूटन ने करीब 18 माह की अल्पावधि में ही गुरुत्वाकर्षण (Gravitiation),  यांत्रिकी (Mechanics),  प्रकाश,  रंग जैसी विषयों पर अपने मौलिक विचारों को ठोस आधार प्रदान कर दिया।
     प्रकाश के व्यवहार को जानने की तीव्र उत्कंठा के कारण आरंभ में न्यूटन ने पारदर्शी (Transparent Materials) के विभिन्न आकार के टुकड़ों को लेकर प्रयोग किये। एक अत्यंत सरल प्रयोग में उन्होंने एक बारीक छिद्र से आने वाले सूर्य के प्रकाश को कांच के एक ‘त्रिफलक’ टुकड़े यानी ‘प्रिज्म’ (Prism) में से गुजारा। इस प्रयोग के दौरान उन्होंने देखा कि उसमें से बैंगनी, जामुनी, नीले, हरे, पीले, नारंगी वह लाल रंग के कुल सात तरह के प्रकाश निकल रहे हैं। इस अत्यंत विस्मयकारी दृश्य ने न्यूटन को बहुत प्रभावित किया।
    प्रिज्म से विभिन्न रंगों के प्रकाश निकलने की प्रक्रिया को समझने के उद्देश्य न्यूटन ने एक अन्य प्रिज्म लिया तथा उसे पहले प्रिज्म के पास ही उल्टा करके रख दिया ताकि पहले प्रिज्म से निकलने वाला प्रकाश दूसरे प्रिज्म से गुजर सके। दूसरे प्रिज्म से निकलने वाले प्रकाश में से सारे प्रकाश के रंग गायब हो गए और श्वेत प्रकाश की पुनः प्राप्ति हो गई। इस प्रयोग से न्यूटन यह समझ गये कि सूर्य के श्वेत प्रकाश में रंगों को प्रिज्म द्वारा नहीं घोला जा रहा है अपितु ये रंग तो सूर्य के प्रकाश में पहले से ही मौजूद हैं। इन रंगों को अलग करने का काम पहले प्रिज्म ने किया, जबकि इन्हें मिलाने का कार्य उल्टे रखें दूसरे प्रिज्म ने।
        सन 1669 में किए गये अपने इन प्रयासों के दौरान न्यूटन ने यह भी देखा कि प्रिज्म से निकले विभिन्न रंगों के प्रकाश हर बार यह निश्चित क्रम में ही जमे हुए रहते हैं जैसे पहले लाल,  फिर उसके नीचे क्रमशः नारंगी, पीले, हरे, नीले, जामुनी व अंत में बैंगनी। रंगों का यह क्रम कभी नहीं बदलता। इसीलिए विभिन्न प्रकाश-रंगों की इस जमावट को न्यूटन ने वर्ण-क्रम या ‘स्पेक्ट्रम’ (Spectrum) नाम दिया तथा सूर्य के प्रकाश से मिलने के कारण यह ‘सौर-स्पेक्ट्रम’ हुआ। न्यूटन ने इस बात पर भी गौर किया कि इंद्रधनुष को बनाने वाले विभिन्न रंगों का क्रम भी ‘सौर-स्पेक्ट्रम’ की ही भांति रहता है। अतः उनकी नजर में ‘इन्द्रधनुष’ भी एक ‘स्पेक्ट्रम’ बन गया, लेकिन आकाश में यह स्पेक्ट्रम कैसे बनता होगा?
 स्पेक्ट्रम क्या है ?  (What is spectrum?)
          'स्पेक्ट्रम’ वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाला एक अति विशिष्ट शब्द है। लेकिन आज जन-सामान्य की विज्ञान से निकटता नहीं ऐसे बहु-आयामी स्वरूप प्रदान करके एक प्रचलित शब्द बना दिया है।  स्पेक्ट्रम का अर्थ किसी भी राशि की क्रमवार जमावट से है और क्रमवार जमावट बिना किसी निश्चित आधार के नहीं हो सकती। यह आधार अलग-अलग भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी स्कूल की व्यायाम की कक्षा में लगने वाली लड़कों की कतार का आधार उनकी ऊंचाई होती है, जबकि पारितोषिक वितरण के दौरान लगने वाली कतार का आधार प्रतियोगियों की प्रवीणता होती है। इसी तरह राशन अथवा सिनेमा की टिकट लेने के लिए लगी कतारों का आधार क्रेता के पहुंचने का समय होता है। अतः किसी एक आधार को मानकर किसी भी प्रकार की क्रमवार-जनावट की जा सकती है। इसके विपरीत अगर हमें पहले से ही कोई क्रमवार जमावट मालूम हो तब हम उसका आधार ढूंढ सकते हैं।
   प्रिज्म से मिलने वाले विभिन्न रंगों के प्रकाश में एक क्रमवार जमावट मिलती है। इस जमावट का आधार क्या हो सकता है? जब प्रकाश की प्रकृति, तरंग के रूप में स्थापित हुई तब स्पेक्ट्रमों में रंगों की जमावट का आधार प्रकाश तरंगों की आवृत्ति अथवा उनकी तरंग-लम्बाई से निर्धारित हुआ। इसी तरह जब वैज्ञानिकों को समान रासायनिक गुण-धर्म वाले लेकिन अलग-अलग द्रव्यमानों के परमाणुओं का ज्ञान हुआ तब उन्होंने द्रव्यमान को आधार बनाकर एक परमाणुओं की क्रमवार जमावट के लिए ‘मास-स्पेक्ट्रम’ शब्द गढ़ लिया। औषधि के क्षेत्र में व्यापक प्रभाव वाली दवाइयों के लिए ‘ब्राड-स्पेक्ट्रम’ का सहज प्रयोग सर्वविदित है।
    स्पेक्ट्रम-निर्माण की मूल-प्रक्रिया को समझने हेतु न्यूटन ने स्पेक्ट्रम का अध्ययन करते हुए देखा की बैंगनी प्रकाश अपने मूल मार्ग के सबसे अधिक विचलित होते हुए झुका होता है,  जबकि लाल-प्रकाश सबसे कम। उन्हें विभिन्न प्रकाश रंग के इस तरह अलग-अलग झुकने का कारण प्रिज्म के पदार्थ और प्रकाश के मध्य होने वाली अंत:क्रिया में छिपा नजर आया। उन्होंने बताया कि इस अंतःक्रिया के फलस्वरुप ही प्रकाश अपने आरंभिक मार्ग से विचलित होते हुए विभिन्न रंगों के प्रकाश-घटकों ( components of light) में बँट जाता है जिससे स्पेक्ट्रम का निर्माण होता है। इस स्पेक्ट्रम के निर्माण में प्रिज्मकार सघन माध्यम यानी ‘प्रिज्म’ सर्वाधिक उपयुक्त होता है क्योंकि इसकी सतह ही कुछ ऐसी होती है कि पहली सतह के प्रकाश-किरण का जो विचलन होता है, वह दूसरी सतह से निकलने के बाद और भी बढ़ जाता। स्पेक्ट्रम निर्माण का यह भी मूल कारण है। अब अगर हम इस पृथ्वी के पास एक अन्य प्रिज्म को उल्टा रखकर सूर्य के प्रकाश को गुजारें, जैसा कि न्यूटन ने किया था, तब हमें स्पेक्ट्रम नहीं मिल सकता, क्योंकि प्रथम प्रिज्म से प्राप्त को विचलन को द्वितीय प्रिज्म उल्टा पड़ा रहने के कारण समाप्त कर देता है। किसी चौकोर या आयताकार काँच के टुकड़े से भी यही होता है, क्योंकि इन्हें भी हम एक-दूसरे के ऊपर उल्टे रखें दो प्रिज्मों के समान मान सकते हैं। इस तरह वैज्ञानिकों को धीरे-धीरे स्पेक्ट्रम बनने का विज्ञान समझ में आने लगा।
      उपर्युक्त पृष्ठभूमि के आधार पर अब हम इन्द्रधनुष को समझने की चेष्टा करते हैं। इन्द्रधनुष अक्सर सूर्य की उपस्थिति में वर्षा होने के बाद आकाश में प्रकट होता है तथा इसे देखते वक्त हमारी पीठ सूर्य की ओर होती है। अतः सूर्य का प्रकाश इन्द्रधनुष के बनते समय सीधे हमारी आँखों तक नहीं पहुँचता है। निश्चित ही उसे किसी ना किसी तरह विभिन्न रंगों के प्रकाश-घटकों में टूटने के पश्चात ही हमारी आँखों तक पहुँचना चाहिए। लेकिन यह किस तरह हो सकता है?
       हमारी पृथ्वी, सूर्य की तुलना में लगभग 3 लाख 33 हजार गुना छोटी है तथा वह सूर्य से लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर स्थित है। अतः सूर्य का प्रकाश पृथ्वी पर हमेशा लगभग समान्तर किरणों के रूप में ही पहुँचता है। सामान्यतः ये किरणें जल-बूँदों में प्रवेश करने के पश्चात विचलित होकर बाहर निकल जाती है। लेकिन जल-बूँदों से बाहर निकलते समय वहाँ पूर्ण आँतरिक परावर्तन की एक अन्य संभावना भी मौजूद रहती है क्योंकि जल-बूँद के अंदर पहुँचा प्रकाश सघन माध्यम (जल) से बूँद के बाहर उपस्थित विरल-माध्यम (हवा) की ओर आपतित होता है। हर रंग के प्रकाश के लिए पूर्ण आंतरिक परावर्तन मिलने की शर्त अलग-अलग होती है। अतः जब एक रंग के प्रकाश के लिए पूर्ण-परावर्तन की शर्त पूरी होती है तब रंग का प्रकाश जल-बूँद से सीधे अपवर्तित होकर बाहर निकलने की बजाय पुनः जल-बूँद में ही परावर्तित होकर उससे बाहर निकल आता है। इस तरह जल-बूँदों से अलग-अलग रंगों के प्रकाश के पूर्ण आंतरिक परावर्तित होने के कारण इन्द्रधनुष बनने लगता है। अब प्रश्न उठता है इसकी आकृति को लेकर-क्यों इसकी आकृति धनुष के समान होती है?
    हमें ज्ञात है सूर्य के प्रकाश की किरणें पृथ्वी की ओर समान्तर किरणों के रूप में आती हैं। यही कारण है कि दर्शक की आँख और सूर्य को मिलाने बाली रेखा भी इन किरणों के ही समान्तर होती है। लेकिन जल-बूँदों से पूर्ण-परावर्तित होकर आने वाली प्रकाश की किरणें समान्तर नहीं होती बल्कि हर रंग के प्रकाश की किरण सूर्य और आँख को मिलाने वाली रेखा से अलग-अलग लेकिन निश्चित कोण बनाती हैं। उदाहरण के लिए 42 डिग्री का कोण बनाने वाली किरणें लाल रंग की होती हैं जबकि अन्य रंगों की किरणें से कम कोण बनाती हैं। बैंगनी प्रकाश की किरणें सबसे कम यानी 38 डिग्री का कोण बनाती हैं। चूँकि एक रंग की किरणें एक निश्चित कोण पर ही सब ओर से आकर आँख पर मिलती हैं अतः ये एक जोकर की नुकीली टोपी अथवा लाउड-स्पीकर के भोंगे की तरह शंकु का रूप धारण कर लेती हैं जिनका शीर्ष दर्शक की आँख आप पर होता है। हर रंग के प्रकाश के अपने अलग-अलग शंकु बनते हैं। अब चूँकि शंकुओं के आधार वृत्ताकार होते हैं, अतः प्रकाश रंग भी वृत्ताकार रूप में दिखलाई पड़ना चाहिए। लेकिन प्रायः हमें अर्द्ध-वृत्ताकार या इससे छोटा इन्द्रधनुष ही दिखता है। हमें पूर्ण-वृत्ताकार इन्द्रधनुष तो कभी नहीं दिखता है। आखिर इसका कारण क्या है? वास्तव में इसका कारण हमारा अर्थात् दर्शक का पृथ्वी सतह पर खड़े रहना है। पृथ्वी सतह से इन रंगीन वृत्तों के (अर्थात् शंकुओं के वृत्ताकार आधार के) बहुत छोटे-छोटे हिस्से ही दिखते हैं। जिनके सम्मिलित रूप को हम सामान्यतः इन्द्रधनुष के नाम से जानते हैं। लेकिन अगर किसी गगनचुम्बी इमारत से इसी दृश्य को देखा जाए तब यह  इन्द्रधनुष उसकी हर मंजिल के साथ बड़ा होता जाता है।
   पूर्ण वृत्ताकार आकृति भी मिल सकती है जब सूर्य हमारे सिर के ऊपर हो, हमारी आँख पृथ्वी सतह से बहुत ऊँचाई पर हो यानी हम वायुयान में बैठे हों तथा पृथ्वी सतह और हमारी आँख के बीच बादल हों। स्मरणीय हो कि बादल जल के ठोस कणों (बर्फ) से मिलकर बने होते हैं।
     इस तरह इन्द्रधनुष, पृथ्वी की एक अत्यंत सुनियोजित घटना है, न कि दैविक चमत्कार। अब यह स्पष्ट है कि पदार्थ (जल बूँदों) और प्रकाश के बीच होने वाली अंतःक्रिया ही इन्द्रधनुष को बनाती है। शनैं: शनै: इस अंतःक्रिया को समझने के लिए ‘स्पेक्ट्रास्कोपी’ (Spectroscopy) नामक एक नई वैज्ञानिक-विधा का जन्म हुआ। इन्द्रधनुष को रहस्योद्घाटन हो जाने से वैज्ञानिकों को प्रकृति से तादाम्य स्थापित करने का एक महत्वपूर्ण सुराग हाथ लग गया। प्रकृति को सजाने वाले विभिन्न मनमोहक रंगों से संबंधित प्रश्नों में वैज्ञानिकों की गहरी रुचि जागने लगी क्योंकि रंग कैसे आकर्षित नहीं करते हैं ‌। कहीं भड़कीली तो कहीं सौम्य, कहीं गहरे तो कहीं फीके-यों विविधताओं से भरा होता है विस्मयकारी रंगों का यह संसार। लेकिन किस तरह बनते हैं इतने सारे रंग? मन मोहिने वाली प्रकृति की छटाएँ, खेतों की हरीतिमाएँ, फूलों और तितलियों के अनगिनत रंग हमसे क्या कहना चाहते हैं? रंगों में व्यक्त प्रकृति को बोली व भाषा को हम किस तरह समझ सकते हैं?
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                          महत्वपूर्ण प्रश्न
  
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. जल बूँदों से अलग-अलग रंगों के प्रकाश के पूर्ण आंतरिक परावर्तन किस कारण बनता है–
     (अ) इन्द्रधनुष                    (ब) स्पेक्ट्रम
     (ब) शंकु                            (द) वृत्ताकार आकृति
उत्तर— (अ) इन्द्रधनुष।
2.  प्रिज्म से बाहर निकलकर आने वाली सूर्य के प्रकाश में कुल कितने रंग होते हैं–
      (अ) तीन                          (ब) सात
      (स) नौ                            (द) बारह
उत्तर— (ब) सात।
3. चमकदार सतह से टकराकर प्रकाश अपना मार्ग बदल लेता है। इसे वैज्ञानिक भाषा में कहते हैं—
       (अ) अपवर्तन (refraection) 
       (ब) परावर्तन (reflection)
       (स) विवर्तन (diffraction)
       (द) ध्रुवण (polarization)
उत्तर— (ब) परावर्तन (reflection)।

4.  प्रिज्म से निकलने वाले रंग का एक निश्चित क्रम में जमे हुए रहते हैं। 1669 में सबसे पहले से इसे किस वैज्ञानिक ने देखा–
       (अ) ग्रिमाल्डी              (ब) विलेब्रोर्ड स्नेल
       (स) न्यूटन                  (द) एरेक्मस बार्थोलिनस
उत्तर— (स) न्यूटन।
5. सूर्य से पृथ्वी की दूरी है–
       (अ) 15 करोड़ किलोमीटर  
       (ब) 1.5 करोड़ किलोमीटर
       (स) 15 लाख किलोमीटर
       (द) 1.5 लाख किलोमीटर
उत्तर- (अ) 15 करोड़ किलोमीटर।

लघु उत्तरीय प्रश्न
1. इन्द्रधनुष नाम कैसे पड़ा?
2. प्रकाश में कौन-कौन से गुण होते हैं?
3. इद्रधनुष धनुष के आकार का क्यों होता है?
4. अपवर्तन किसे कहते हैं?
5. परावर्तन किसे कहते हैं?

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. इन्द्रधनुष बनने की प्रक्रिया समझाइए ?
2. सूर्य के प्रकाश में अन्तर्निहित रंगों का परिचय दीजिए ?
3. स्पेक्ट्रम से आप क्या समझते हैं ?
4. विवर्तन किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए।

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