बैरंग शुभकामना और प्रजातंत्र (पूरा व्यंग्य): हरिशंकर परसाई। Bairang Shubhkamna Aur Prajatantra (Vyangya): Harishankar Parsai

बैरंग शुभकामना और प्रजातंत्र :- भारतीय  राजनीति से संबंधित हरिशंकर परसाई जी का सुप्रसिद्ध व्यंग्य को ध्यान से अंत तक जरूर पढ़ें 🙏
      नया साल राजनीति वालों के लिए मतपेटिका और मेरे लिए शुभकामना का बैरंग लिफाफा लेकर आया है। दोनों ही बैरंग शुभकामनाएं हैं जिन्हें मुझे स्वीकार करने में 10 पैसे लग गए और राजनीतिज्ञों को बहुत बैरंग चार्ज चुकाना पड़ेग।

      मेरे आस-पास 'प्रजातंत्र बचाओ' के नारे लग रहे हैं। इतने ज्यादा बचानेवाले खड़े हो गए हैं कि अब प्रजातंत्र का बचना मुश्किल दिखता है। जनतंत्र बचाने के पहले सवाल उठता है-किसके लिए बचाएं? जनतंत्र बच गया और फालतू पड़ा रहा तो किस काम का? बाग की सब्जी को उजाड़ू ढेरों से बचाते हैं, तो क्या इसलिए कि वह खड़ी-खड़ी सूख जाए? नहीं, बचाने वाला सब्जी पकाकर खाता है। जनतंत्र अगर बचेगा तो उसकी सब्जी पकाकर खाई जाएगी। मगर खानेवाले इतने ज्यादा है कि जनतंत्र के बंटवारे में आगे चलकर झगड़ा होगा।

        पर जनतंत्र बचेगा कैसे? कौन सा इंजेक्शन कारगर होगा? मैंने एक चुनावमुखी नेता से कहा-भैयाजी, आप तो राजनीति में मां के पेट से ही हैं। जरा बताइए, जनतंत्र कैसे बचेगा? कोई कहते हैं, समाजवाद से जनतंत्र बचेगा। कोई कहता है, समाजवाद से मर जाएगा। कोई कहता है, गरीबी मिटाए बिना जनतंत्र नहीं बच सकता। तब कोई कहता है, गरीबी मिटाने का मतलब-तानाशाही लाना। कोई कहता है, इंदिरा गांधी (आज के समय में नरेंद्र मोदी) के सत्ता में रहने से जनतंत्र बचेगा। पर कोई कहता-इंदिरा (मोदी) ही तो जनतंत्र का नाश कर रही हैं। आप बताइए, जनतंत्र कैसे बचेगा।

        भैयाजी ने कहा-भैया, हम तो सौ बात की एक बात जानते हैं कि अपने को बचाने से जनतंत्र बचेगा। अपने को बचाने से दुनिया बचती है। जरा चलूं। टिकट की कोशिश करनी है।

         सोचता हूं, मैं भी चुनाव लड़कर जनतंत्र बचा लूं। जब जनतंत्र की सब्जी पकेगी तब एक प्लेट अपने हिस्से में भी आ जाएगी। जो कई सालों से जनतंत्र की सब्जी खा रहे हैं, कहते हैं बड़ी स्वादिष्ट होती है। 'जनतंत्र' की सब्जी में 'जन' का छिलका चिपका रहता है उसे छील दो और खालिस 'तंत्र' को पका लो। आदर्शों का मसाला और कागजी कार्यक्रमों का नमक डालो और नौकरशाही की चमक से खाओ! बड़ा मजा आता है-कहते हैं खाने वाले।
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         सोचता हूं, जब पहलवान चंदगीराम और फिल्मी सितारे-सितारिन जनतंत्र को बचाने को आमदा हैं, तो मैं भी क्यों न जनतंत्र बचा लूं। मास्टर को तो बादाम पीसने से फुरसत नहीं मिलेगी और सितारों को किसी-न-किसी की बैकग्राउंड म्यूजिक पर होंठ हिलाना पड़ेगा। मेरे बिना जनतंत्र कैसे बचेगा?


        पर तभी यह बैरंग लिफाफा दिख जाता है और दिल बैठ जाता है। मैंने ग्रीटिंग कार्डों को बिछाकर देखा है-लगभग 5 वर्गमीटर शुभकामनाएं मुझे नए वर्ष की मिली हैं। अगर इतने कार्ड मुझे कोरे मिल जाते, तो मैं इन्हें बेच लेता। पर इन पर मेरा नाम लिखा है इसलिए कोई नहीं खरीदेगा। दूसरे की नाम की शुभकामना किस काम की?

        इनमें एक बैरंग लिफाफा भी है। कार्ड पर मेरी सुख समृद्धि की कामना है। सही है। पर शुभकामना को लेने के लिए मुझे 10 पैसे देने पड़े। जो शुभकामना हाथ में आने के 10 पैसे ले ले, वह मेरा क्या मंगल करेगी? शुभचिंतक मुझे समृद्ध तो देखना चाहता है, पर यह मुझे बतलाने के ही 10 पैसे ले लेता है।

       शुभ का आरंभ अकसर मेरे साथ अशुभ हो जाता है। समृद्ध होने के लिए लॉटरी की 2 टिकटें ख़रीदीं-हरियाणा और राजस्थान की। खुलीं तो अपना नंबर नहीं था। दो रूपये गांठ के चले गए। सोचा, बंसीलाल और सुखाड़िया का एक-एक रूपया किसी जन्म का कर्ज होगा! चुक गया। अपने को ऐसे समृद्धि नहीं मिलेगी। वह पगडंडी से आती-जाती है। लजीली कुलवति है। पर्दा भी करती है। मेरे एक छात्र ने पगडंडी ढूंढ़ ली है। एक दिन मिला, तो मैं पूछा-तुम्हारे ऐसे ठाठ कैसे हो गए? बड़ा पैसा कमा रहे हो। उसने कहा-सर, अब मैं बिजनेस लाइन में आ गया हूं। मैंने पूछा-कौन-सा बिजनेस करते हो? उसने कहा-सट्टा खिलाता हूं। इस देश में सट्टा बिजनेस लाइन में शामिल हो गया है। मंथन करके लक्ष्मी को निकालने के लिए दानवों को देवों का सहयोग अब नहीं चाहिए। पहले समुन्द्र-मंथन के वक्त उन्हें टेकनीक नहीं आती थी, इसलिए देवताओं का सहयोग लिया। अभी टेकनीक सीख गए हैं।


       अच्छी चीज बेरंग हो जाती है। पिछले साल सफाई सप्ताह का उद्घाटन मेरे घर के पास ही हुआ था। अच्छा 'साइट' थी। वहां कचरे का एक बड़ा ढेर लगाया गया। फोटोग्राफर कोण और प्रकाश देख गया और तय कर गया कि मंत्री जी को किस जगह खड़े होकर फावड़ा चलाना है। अफसर कचरे की सजावट करवाने में लग गए। एक दिन मंत्रीजी आए और दो-चार फावड़े चलाकर सफाई सप्ताह का उद्घाटन कर गए। इसके बाद कोई उस कचरे के ढेर को साफ करने नहीं आया। उम्मीद थी कि हर साल यहीं सफाई सप्ताह का उद्घाटन होगा और हर साल 4 फावड़े मारने से लगभग एक शताब्दी में यह कचरा साफ हो जाएगा। मैं इंतजार कर सकता हूं पर इस साल दूसरी जगह चुन ली गई।


    सफाई सप्ताह कचरे का ढेर दे जाता है और नया साल बैरंग शुभकामना लेकर आता है। फिर भी संसद में जाने को लालायित हूं। एक साहब से अपनी इच्छा प्रकट करता हूं तो वह कहता है-चुनाव लड़ने से भी क्या होगा? मैंने कहा-संसद सदस्य हो जाऊंगा।

     वह-संसद सदस्य होने से भी क्या होगा?
     मैं-मंत्री हो जाऊंगा।
     वह-मंत्री होने से भी क्या होगा?
     मैं-मैं प्रधानमंत्री हो जाऊंगा?
     वह-प्रधानमंत्री होने से भी क्या होगा?
     मैं-मैं गरीबी मिटा दूंगा?
     वह-गरीबी मिटाने से भी क्या होगा?
     मैं-लोग खुशहाल हो जाएंगे।

     वह कहता है-पर भैया, खुशहाल होने से भी क्या होगा? 

     मेरे पास इसका जवाब नहीं। यह भारतीय जन कैसा हो गया है? कैसा हो गया है इसका मन? लगता है, मुझे ही नहीं, सारे देशवासियों को बैरंग शुभकामनाएं आती रही हैं और आज उसका यह हाल हो गया है कि कहता है-खुशहाल होने से भी क्या होगा?

      मित्र कहती हैं-तुम तो जनता के उम्मीदवार हो जाओ। जनसमर्थित उम्मीदवार! पर मैं इसी भारतीय जन की तलाश में हूं वर्षों से। वह मिलता नहीं है। कहते हैं, वह चुनाव के वक्त मिलता है-भारतीय जन। पर अभी के एक चुनाव में उसे मैं तलाशता रहा। लगभग हर पार्टी ने मुसलमानों के मत पाने के लिए मौलाना को बुलाया। मौलाना ने फतवा दिया-मुसलमानों, जब तुम ईद के चांद के बारे में मेरी बात मानते हो तो वोट के बारे में भी मेरी बात मानो। अमुक को वोट दो। जैनियों के मत पाने के लिए कोई ऑल इंडिया जैन नेता बुला लिया। दिगम्बरों के लिए दिगम्बर और श्वेताम्बरों के लिए श्वेताम्बर।
स्थानकवासी और तेरापंथी और मिल जाते तो ठीक रहता। तेलियों के लिए अखिल भारतीय तेली और नाइयों के लिए ऑल इंडिया नाई। क्षेत्र के ब्राह्मणों से कहा गया-यहां से हमेशा ब्राह्मण चुनाव जीता है। देख लो, 20 सालों का रिकार्ड। धिक्कार है हम ब्राह्मणों को अगर कोई गैर-ब्राह्मण इस बार जीत गया तो।

    कहां है भारतीय जन? कौन-सा है? क्या वह जो कहता है-खुशहाल होने से भी क्या होगा? या यह जो भारतीय होने के लिए चलता है, कि रास्ते में कोई उसे रोककर कहता है-चल वापस । तू भारतीय नहीं, ब्राह्मण है।



     बैंरंग मंगल कार्ड मेरी आंखों में घूरकर देखता है और कहता है-वक्त के इशारों को समझ और बाज़ आ। तुझसे प्रजातंत्र नहीं बचेगा। अगर तुझे ही चुनाव जीतकर प्रजातंत्र बचाने का काम नए साल ने सौंपा होता, तो मेरे ऊपर पूरी टिकटें न चिपकती?
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📘✍️ Sanghpriya Goutam (Sangh77)
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