( इधर पंचम गुरु का मशहूर जुए का अड्डा चलता है। पुलिस, ऊंचे अफसरान और धनी-मानी लोगों के नैतिक सहयोग से यह अड्डा फल-फूल रहा है-याने फूलने की झंझट में ना पड़कर एकदम फल जाता है। हर जुए के अड्डे में 'छोकरे' होते हैं, जो पान, बीड़ी, दारू का इंतजा़म करते हैं, जुहारियों की सेवा करते हैं। पंचम गुरु के अड्डे में एक तेज़ छोकरा है। उसे पूर्व-स्मृति है। वह कहता है, द्वापर में भी वह 'छोकरा' ही था और लच्छू उस्ताद के जुए के अड्डे में काम करता था। जब दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ जुआ खेला था, तब उन्होंने लच्छू उस्ताद से एक अच्छा 'छोकरा' देने के लिए कहा था। लच्छू उस्ताद ने इसी छोकरे को भेज दिया था। वह कहता है, उसने इतिहास का सबसे बड़ा जुआ देखा था। उसी के शब्दों में-लेखक)
साब, बड़े-बड़े जुए की फड़ देखें, बड़े-बड़े जुआरी देखे, पर वैसा जुआ नहीं देखा। लच्छू उस्ताद ने कहा था- छोकरे, राजा लोगों का दुआ है। बड़े-बड़े वीर वहां होंगे। अच्छी चाकरी करेगा तो ऊंचा 'टिप' मिलेगा। गलती करेगा तो सिर खो देगा। जरा संभल के।
तो साब, मैं तो डरते डरते वहां गया।
मैंने पूछा-छोकरे, यह जुआ हुआ ही क्यों? तू तो वहां था। तू जानता होगा।
छोकरा बोला-जिसको 'पाॅवर पॉलिटिक्स' बोलते हैं न साब, वही था ये। सब जुआ खेलते हैं पॉलिटिक्स में। नेपोलियन ने खेला था, हिटलर ने खेला था। याहिया खाँ ने भी खेल कर देख लिया। हिन्दचीन में अमेरिका इतने सालों से जुआ खेल रहा है। 1962 में क्यूबा में रूस और अमेरिका जुआ खेलनेवाले ही थे कि संभल गए, वरना न तो पांडव रहती न कौरव।
मैंने कहा-पर ये कौरव-पांडव तो एक ही कुल के थे। भाई ही थे। फिर ऐसा पाॅवर पॉलिटिक्स क्यों चला?
छोकरे ने कहा-रूस और चीन क्या एक ही कुल के नहीं हैं साब? फिर भी पाॅवर पॉलिटिक्स का जुआ चल रहा है। अमेरिका और पश्चिमी जर्मनी भी तो एक ही कुल के हैं, पर उनमें भी डॉलर और मार्क का जुआ चल रहा है। भाई-भाई में जुख होता है साब। एक मजे़ की बात बताऊं? शकुनी और दुर्योधन के सिवा सब जुए के खिलाफ थे। धृतराष्ट्र जुए को बुरा समझते थे, भीष्म जुए को नाश का कारण मानते थे, विदुर ने तो सबसे ज्यादा विरोध किया। पर जानते हैं साब, युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए बुलाने कौन गया? वही महात्मा विदुर। और युधिष्ठिर ने भी कहा कि जुआ बहुत खराब चीज़ है। पर फिर खेलने भी चले आए। कहने लगे-जब बुलावा आया है तो ज़रूर चलकर खेलूंगा। साब, सब जुए के खिलाफ, पर सब जुआ खेल रहे हैं।
मैंने पूछा-छोकरे, तू तो बड़ा होशियार मालूम होता है। यह तो बताओ कि ऐसा हुआ क्यों?
छोकरे ने कहा-साब, जब कुल का सयाना अंधा होता है, तब थोड़े-थोड़े अंधे सब हो जाते हैं। फिर जिसे बुरी बात समझते हैं उसी को करते हैं। अभी देख लो न। दुनिया में सब लड़ाई को बुरा बोलते हैं। सब शांति की इच्छा रखते हैं, पर सब हथियार बनाते जा रहे हैं।
ये युधिष्ठिर जो थे न, धर्मराज थे। बड़े भले आदमी थे। अच्छा, बुरा, पाप पुण्य-सब समझते थे। दूसरों को सिखाते थे। पर उन्हें जुआ खेलने का शौक था। बड़े आदमी में एक-न-एक खराबी होती ही है, साब। हमारे लच्छू उस्ताद ने उससे कहा था-महाराज, जुआ खेलने का ही शौक है, तो हमारे अड्डे पर आ जाया करो। अरे हारोगे भी तो कितना हारोगे? हजार (1000 ), पांच हजार (5000), दस हजार (10000) सिक्के। भेश बदलकर आ जाया करो। कोई जानेगा नहीं। और महाराज, पांसा नहीं तीन पत्ती खेलो। आपको पांसा फेंकना ही नहीं आता। किसी दिन पांसे के जुए में आप भाइयों की कमाई प्रॉपर्टी उड़ा देंगे। पर वे माने ही नहीं। आखिर वही हुआ जो हमारे लच्छू उस्ताद ने कहा था।
कौरव बैठे हैं। पांडवों का इंतजार कर रहे हैं। धृतराष्ट्र भी उत्सुक हैं। दिखता नहीं है तो पूछते हैं-आ गए? कोने में विदुर खिन्न बैठे हैं। भीष्म बेचैन हैं। दुर्योधन और शकुनि उत्तेजित हैं और कर्ण शांत और संतुष्ट बैठें हैं।
उधर का हाल यह है कि पांडव जानते हैं कि हारेंगे, फिर भी खेलने को चले जा रहे हैं। आगे युधिष्ठिर हैं, पीछे भीम। उसके पीछे अर्जुन, नकुल और सहदेव। भीम उत्तेजित हैं। बाकी भाई इस तरह तटस्थ भाव से चले आ रहे हैं कि बड़े भैया जो भी करें, ठीक है।
आमने-सामने बैठ गए। मैं पानी पिलाने के बहाने युधिष्ठिर के पास गया और कान में कहा-धर्मराज, तीन पत्ती खेलो। पांसा मत खेलना। तुम्हें पांसा फेंकना नहीं आता। इसी वक्त शकुनी मुझे देख लिया और पुकारा-ऐ छोकरे, उधर क्या कर रहा है? वह बीड़ी का कट्टा उठाकर ला।
दुर्योधन बोलता है-दांव मैं लगाऊंगा, पर पांसे मेरी तरफ से मामा शकुनि फेंकेंगे। भला बताइए, ऐसा भी होता है कि दांव एक लगाए और पांसा दूसरा फेंके!
मैंने कहा-होता है रे। पॉलिटिक्स में होता है। देखा नहीं की दांव याहिया खाँ ने लगाया और पांसे निक्सन तथा माओ ने फेंके-दो शकुनि मामा। और हम अगर युधिष्ठिर जैसे बने रहते तो हमारा भी कबाड़ा हो जाता। पर हमने कह दिया कि तेरा शकुनि तो हमारा भी ‘रसुनि’। फेंक पांसा।
छोकरा बोला-बिल्कुल ठीक बात बोले साब आप। युधिष्ठिर भी कह देते कि तुम्हारी तरफ से अगर शकुनि पासा फेंकेंगे तो हमारी तरफ से लच्छू उस्ताद फेंकेंगे। शकुनि किसी का लोहा मानता था तो हमारे लच्छू उस्ताद का। पर युधिष्ठिर के हाथ तो पांसा फेंकने को कुलबुला रहे थे न। वे इस शर्त को भी मान गए।
और चालू हो गया साब, जुबा।
युधिष्ठिर ने लगा दिया दांव पर सोना और रत्न। फेंके पांसे।
फिर शकुनि ने पांसे फेंके और चिल्लाया-जीत लिया।
एक बात माननी पड़ेगी साब-शकुनि था उस्ताद। जैसे चाहता वैसे पांसे फेंक लेता था। यह बात तो उड़ाई हुई है कि वह कपटी था। असल में वो अच्छा खिलाड़ी था।
फिर लगा दांव-और लाखों अशर्फी, मनों सोना।
धर्मराज ने पांसे फेंके।
फिर शकुनि ने फेंके और चिल्लाया-जीत लिया!
धर्मराज तो जुए के नशे में धुत्त हो गए थे। उन्होंने सब प्रॉपर्टी हाथी, घोड़े, गायें, दांव पर लगा दिए और हार गए।
मैंने कहा-अब बंद करो महाराज!
पर वे बोले-अगला दांव मैं ही जीतूंगा।
पर अब अब दांव पर लगने को बचा ही क्या था? सिर्फ आदमी बचे थे। और वे सेनापतियों और नौकरों को दांव पर लगाने और हारने लगे। मैंने पूछा-क्यों रे छोकरे, जब आदमी दांव पर लगने लगे तो किसी ने रोका नहीं?
उसने कहा-रोका, साब। पर धर्मराज तो होश में नहीं थे। उधर बेचारे विदुर जरूर बार-बार धृतराष्ट्र से कहते थे कि लड़के को रोको, वरना अनिष्ट होगा। पर अंधे राजा बेटे के मोह में और अंधे हो गए थे।
उधर दु:शासन, दुर्योधन और शकुनि बगैरह पांडवों की खिल्ली उड़ाते थे, उनका अपमान करते थे। इधर भीम क्रोध से कसमसा जाते थे। बाकी पांडव बड़े भाई के लिहाज़ आज में मुंह लटकाए बैठे थे।
आदमी दावों पर लगने लगे साब और हारे जाने लगे। दास-दासी-सब धर्मराज हार गए।
पसीना आ रहा था युधिष्ठिर को। मुझे पुकारा-छोकरे, पानी पिला ।
मैंने उन्हें पानी पिलाते हुए कहा-महाराज, अब भाइयों को लेकर भाग जाओ।
पर वे कहां माननेवाले!
उन्होंने नकुल और सहदेव को दांव पर लगा दिया और हार गए।
शकुनि चिल्लाया-छोकरे थोड़ी दारु ला।
अब साब, युधिष्ठिर ने भीम और अर्जुन को दांव पर लगया और हार गए।
कोई भाई नहीं बोला साब कि हमारा जुआ क्यों खेलते हो?
अब बचे धर्मराज।
बोले-इस बार मैंने अपने को दांव पर लगाया।
पांसी फेंके।
शकुनि ने फेंके और जीत गया।
खलास हो गया। सब भाई दुर्योधन की प्रॉपर्टी को हार गए साब।
अब?
शकुनि को खूब चढ़ गई थी साब। नहीं तो वह वैसी बात नहीं कहता। कहता है-धर्मराज अभी द्रौपदी बच गई है। उसे भी दांव पर लगाओ।
सारी सभा में हाहाकार मच गया। विदुर ने फिर समझाया।
बताइए साब, द्रौपदी तो ज्वाइंट प्रॉपर्टी थी। अकेली युधिष्ठिर की बीवी तो थी नहीं। पांचों भाइयों की थी। फिर एक भाई उसे दांव पर कैसे लगा सकता है?
पर लगा दिया। भाई लोग कुछ नहीं बोले। वह ज़माना ही ऐसा था साब। भीष्म के पिता शांतनु का दिल एक केवट कन्या पर आ गया था, तो बूढ़े बाप के शौक के लिए भीष्म ने राजपाट छोड़ा और क्वांरे रहे। बोले ही नहीं कि फादर, बहुत भोग कर लिया, बूढ़े हो गए। अब हमारी जिंदगी क्यों खराब करते हो?
तो साब, युधिष्ठिर द्रौपदी को भी हार गए।
भीम अब आपे से बाहर हो गया। बोला-अभी तक मैं कुछ नहीं बोला। तुम प्रॉपर्टी हार गए। हमें भी हार गए। पर तुमने द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया। तुम पक्के जुहारी हो। मैं तुम्हारे इन पांसे फेंकने वाली हाथों को जला दूंगा।
एक बात बताऊं? भीम द्रौपदी को बहुत 'लव' करता था। पर द्रौपदी ज़रा अर्जुन की तरफ ज़्यादा थी। कृष्ण अर्जुन का बड़ा दोस्त था। और द्रौपदी भी कृष्ण से अपना दुख कहती थी। पता नहीं, क्या गोलमाल था साब। ये कृष्ण था बहुत दंदी-फंदी आदमी। वह होता तो शकुनि की नहीं जलती। वह साफ झूठ बोल जाता था और कहता था कि यही सच है। वह कपट कर लेता था और कहता था कि इस वक्त कपट करना धर्म है।
अब साब, द्रौपदी सभा में लाई गई। दु:शासन लाया। और उसका अपमान होने लगा।
बड़ी ज़ोरदार औरत थी यह द्रौपदी। उसने वह धिक्कारा सबको कि सबके माथे झुक गए। बोली-ये मेरे पति कायर हैं। ये इतने बूढ़े और ज्ञानी सभा में बैठे हैं, ये सब पापी हैं। मुझे बताओ कि खुद अपने को हारे हुए युधिष्ठिर क्या मुझे दांव पर लगा सकते हैं? क्या बोलता है तुम्हारा धर्म? तुम्हारी नीति? तुम्हारा न्याय?
सब सुन्न हो गए, साब! कोई नहीं बोला।
मैंने कहा-छोकरे, कौरवों की तरफ बड़े-बड़े लोग थे। बड़े-बूढे़ थे। वे सही बात क्यों नहीं बोले?
छोकरा हँसा। बोला-साब, वे सब ‘सिंडिकेटी’ हो गए थे। अनुशासन में बंध गई थी। निजलिंगप्पाजी जिसको ‘डिसिप्लिन’ बोले थे न, वही हो गया था। अंतरात्मा की आवाज़ और अनुशासन का झगड़ा था। द्रौपदी कहती थी-तुम्हारी अंतरात्मा क्या बोलती है? पर वे सब बूढ़े और ज्ञानी जैसे जवाब में कह रहे हों-अंतरात्मा की आवाज़ नहीं। हम तो अनुशासन वाले हैं। इसलिए चुप हैं। और साब, आप जानते ही हैं, कि जैसे सिंडिकेटी अनुशासन वालों की गत हुई वैसी ही इन द्वापर के सिंडिकेटियों की महाभारत में हुई।
मैंने पूछा-छोकरे, फिर पांडवों ने क्या किया?
वह बोला-फिर पांडवों ने कुछ नहीं, द्रौपदी ने ही किया। उसने धृतराष्ट्र को खुश करके अपने पतियों और प्रॉपर्टी को वापस ले लिया। यह दूसरा जुइ था साब! द्रौपदी ने वह पांसे फेंके, क्रोध, धिक्कार और विलाप के, कि वह जीत गई।
अब पाण्डव वापस घर को चले।
इधर दुर्योधन घबडा़या कि अब यह बदला लेंगे। उसने शकुनी से सलाह की।
वह दौड़कर युधिष्ठिर के पास गया और कहा-एक बार और खेल लो।
बड़े बौड़म थे ये धर्मराज।
और साब, धर्मराज जानते हुए भी कि फिर हारेंगे, खेलने के लिए लौट आए।
आगे का हाल तो आप जानते ही हैं। एक ही दांव में पांडवों को 12 वर्ष का बनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास हो गया।
दुर्योधन का पॉलिटिक्स चला गया साब। 13 साल तक राजनैतिक विरोधी को बियाबान में रखकर उसने अपनी ‘पोज़ीशन’ मजबूत करने की ठान ली थी।
लड़का चुप हो गया। उदास हो गया।
कहने लगा-ऐसा जुआ कभी नहीं देखा, साब! मुझे तो रोना आ गया साब, जब पाण्डव वनवासियों का वेश धरण करके चल दिए। भीम लाल-पीले हो रहे थे, पर विवश थे। और बेचारी द्रौपदी बिलखती हुई पीछे चल रही थी।
रास्ते में लच्छू उस्ताद युधिष्ठिर को मिले। बोले-धर्मराज, 13 साल का चांस मिला है। इसमें कम-से-कम एक भाई को तो अच्छा जुआरी बनाओ। तीर-कमान सिखाने से ही कुछ नहीं होता तीर-कमान को तो पांसों ने मार दिया। पांचों पाण्डवों में कम-से-कम एक को तो जुआ खेलने में एक्सपर्ट होना चाहिए। बोलो, अपने अड्डे के घसीटे को साथ कर दूं? वह सिखा देगा।
पर धर्मराज ने यह बात भी नहीं मानी और वन को चले गए।
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📘✍️ Sanghpriya Goutam (Sangh77)
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